गुहिल व सिसोदिया वंश का इतिहास

               मेवाड़ के गुहिल व सिसोदिया


गुहिल वंश:-
गुहिल - जैन ग्रंथों के अनुसार वल्लभी (गुजरात) के शासक शिलादित्य के पुत्र गुहिल/गुहादित्य ने 566 ई. में मेवाड़ में गुहिल वंश की नींव डाली थी। गुहिल की माता का नाम पुष्पावती था। गुहिल वंश की प्रारंभिक राजधानी ’नागदा’ (उदयपुर) थी, जिसे बप्पा ने राजधानी बनाया था। 


बप्पा रावल 'कालभोज'- 

इस वंश के शासक बप्पा रावल ने हारित ऋषि के आर्शीवाद से 733 ई. में मौर्य शासक मानमोरी को परास्त कर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया व मेवाड़ मे गुहिल वंश की वास्तविक स्थापना की। बप्पा ने कैलाशपुरी (उदयपुर) मे 'एकलिंग' महादेव मंदिर बनवाया।मेवाड़ के सभी शासक अपने आप को एकलिंग जी का दीवान बताते हुए शासन करते हैं।

★ गुहिल शासक ’अल्लट’ - इन्होंने हूण राजकुमारी हरिया देवी से शादी की और मेवाड़ मे सर्वप्रथम नोकरशाही को लागू किया। इसने दूसरी राजधानी आहड़(उदयपुर) बनायी।


★ जैत्रसिंह (1213 - 1253) जयसिंह सूरि कृत 'हमीर मद मर्दन' के अनुसार इल्तुतमिश ने कई बार नागदा पर आक्रमण किया, उसको कई बार लुटा। विवश होकर जैत्र सिंह ने चित्तोड़ को अपनी नई राजधानी बनाया। 'भुताला के युद्ध' मे जैत्र सिंह ने इल्तुतमिश को हराने में सफलता पाई। जैत्र सिंह ने नाडौल के चौहानों को भी परास्त किया।


★ जैत्र सिंह के बाद के प्रमुख शासकों में समर सिंह (1273 - 1302) हुआ। समर सिंह का एक पुत्र रतन सिंह मेवाड राज्य का उत्तराधिकारी हुआ और दूसरा पुत्र कुम्भकरण नेपाल चला गया। नेपाल के राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं।

रावल रतनसिंह (1302- 1303ई.) -  रावल समरसिंह की मौत के बाद रतनसिंह शासक बने। इन्ही के समय अलाउद्दीन खलजी ने अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा व रानी पदिमनी को पाने की लालसा के चलते 1303 में मेवाड़ पर आक्रमण किया। 8 माह के घेरे के बाद केसरिया व जौहर हुआ तथा ’चित्तौड़ का प्रथम साका’ सम्पन्न हुआ। रतनसिंह के सेनापति गोरा व बादल भी काम आये। अलाउद्दीन ने चित्तौड़ का नाम बदलकर ’खिज्राबाद’ रख दिया।



सिसोदिया वंश -
राणा हम्मीर - रतनसिंह की मृत्यु के बाद सिसोदा गांव के अरिसिंह के पुत्र हम्मीर ने 1326 में बनवीर चौहान को मारकर सिसोदिया वंश की नींव रखी। राणा हम्मीर को वीर राजा, विषम घाटी पंचानन व मेवाड़ का उद्धारक कहा जाता है।
★ हम्मीर के बाद क्षेत्रसिंह (1364-1382) व लाखा (1382-1421) शासक बने। लाखा के दरबार में झोटिंग भट्ट व धनेश्वर भट्ट नामक विद्वान रहते थे। लाखा के समय पिछौला झील का निर्माण हुआ था। 


★ लाखा के बाद उसका अल्पवयस्क पुत्र मोकल (1421-33) शासक बना। मोकल ने मेवाड़ को बौद्धिक व धार्मिक केन्द्र बनाया। चितौड़ में मोकल ने समिधेश्वर महादेव (त्रिभुवन नारायण) का मंदिर बनवाया व एकलिंग जी के मंदिर का परकोटा भी बनवाया। मोकल की  हत्या जीलवाड़ा में चाचा व मेरा ने कर दी थी।

महाराणा कुंभा (1433-68)-
              मोकल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र महाराणा कुंभा मेवाड़ का शासक बना। इसकी माता का नाम सौभाग्य देवी था। कुंभलगढ़ प्रशस्ति, कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति व एकलिंग महात्म्य से कुंभा के बारे में जानकारी मिलती है।


◆कुंभा ने डोडिया सरदार नरसिंह के नेतृत्व में सेना भेजी व देवड़ा शासक सहसमल को हराकर आबू व उसके निकटवर्ती भागों पर कब्जा किया।
◆ कुंभा ने अपने पुत्र रायमल का विवाह जोधा की पुत्री श्रृंगार देवी से करके मेवाड़-मारवाड़ मैत्री (आंवल-भांवल संधि) को पुनर्जीवित किया।
◆ कुंभा ने सेना भेजकर गागरोण, बम्बावदा व माण्डलगढ पर अधिकार कर लिया व बूंदी के राजा को भी परास्त किया। बूंदी को करद राज्य बना लिया।
◆ 1437 में मालवा के सुल्तान महमूद खलजी व महाराणा कुंभा के बीच में ’सारंगपुर का युद्ध’ हुआ। जिसमे कुंभा ने खिलजी को परास्त कर बंदी बना लिया व 6 माह बाद वापस छोड़ दिया। मालवा विजय के उपलक्ष्य  में महाराणा कुंभा ने चितौड़गढ़ दुर्ग में 9 मंजिला कीर्तिस्तंभ (विजय स्तंभ) का निर्माण करवाया था।
◆ 1456  में गुजरात के शासक कुबुबुद्दीन ने मेवाड़ पर आक्रमण किया, लेकिन उसकी करारी हार हुई व वह वापस लौट गया।
◆ 1456 में मालवा व गुजरात के शासकों के बीच मेवाड़ के विरूद्ध ’चम्पानेर की संधि’ हुई, जिसके तहत दोनों शासकों ने मिलकर मेवाड़ पर धावा बोला, लेकिन कुंभा की रणकुशलता के सामने दोनों की एक न बनी तथा कुम्भा की जीत हुई।

कुंभा की सांस्कृतिक उपलब्धियां -
स्थापत्य कला - कुंभा ने अनेक राजमहलों का निर्माण करवाया। उसके काल में बहुत से देवालय बनाये गये (यथा- रणकपुर का जैन मंदिर, कुंभश्याम  मंदिर, श्रृंगार चंवरी मंदिर, कुशलमाता का मंदिर, मीरा मंदिर) ।कुंभा के राज के 84 दुर्गो में से 32 का निर्माण करवाया। इनमें कुंभलगढ दुर्ग (1443- 1459), बैराठ दुर्ग, बसंती दुर्ग, मचान दुर्ग, भोमट दुर्ग, अचलगढ दुर्ग का निर्माण करवाया व चितोड़गढ की मरम्मत करवाई। कुंभा ने चितौड़ दुुर्ग में 9 मंजिला कीर्तिस्तंभ (विजय स्तम्भ/विष्णु ध्वज) (1439-59) का भी निर्माण करवाया।

ख. संगीत कला - कुंभा स्वयं उच्च कोटि का संगीतज्ञ था।उसे संगीत कला का भी ज्ञान था, इसी कारण उसे ’अभिनव भरताचार्य’ भी कहा जाता था। उसने संगीत राज, संगीत मीमांसा, व सूड प्रबंध नामक ग्रंथ लिखे। कुंभा कालीन प्रतिमाओं में मृदंग, झांझ आदि वाद्यों का प्रदर्शन व कीर्ति स्तंभ की प्रतिमाओं में नृत्य मुद्राओं का अंकन कुंभाकालीन उन्नत संगीत कला का प्रमाण है।
एकलिंग महात्म्य से ज्ञात होता है कि कुंभा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण व साहित्य का ज्ञाता था।

ग. 'विद्वानों का संरक्षक'  -कुंभा वीर, युद्ध कुशल व कलाप्रेमी होने के साथ-साथ विद्यानुरागी भी था। उसने अपने दरबार में कई विद्वानों को संरक्षण दे रखा था। यथा-
● मण्डन (वास्तु मण्डन, प्रासाद मण्डन, रूप-मण्डन, देवमूर्ति प्रकरण, राजवल्लभ),
● नाथा (वास्तु मंजरी),
● गोविन्द (द्वार दीपिका, उद्धार धोरिणी, कलानिधि),
● कान्ह व्यास (एकलिंग महात्म्य),
● कवि अत्रि व महेश (कीर्ति स्तंभ प्रशास्ति),
● सारंग व्यास (कुंभा के संगीत गुरू),
● रमाबाई (कुंभा की पुत्री व संगीतज्ञा)
● अन्य- सोमसुंदर, सुन्दर सुरि, सोमदेव व जयचंद्र सूरि।

घ. विरूद (उपाधि) - महाराजाधिराज, रायरायन, दानगुरू, हालगुरू (पहाड़ी दुर्गो का स्वामी) , राणो रासो (विद्वानों का संरक्षक) , राजगुरू , छापगुरू(छापामार युद्ध कला का ज्ञाता), परमगुरू व शैलगुरू।

मृत्यु - कुंभा की हत्या कटारगढ में सोते वक्त उसी के पुत्र उदयकरण (ऊदा) ने कर दी।



★ आकाशीय बिजली गिरने से ऊदा (मेवाड़ का पितृहन्ता) की भी मौत हो गई। ऊदा के बाद कुंभा के छोटे पुत्र रायमल (1473-1509) को महाराणा बनाया गया। इनके पुत्र संग्राम सिंह, पृथ्वीराज और जयमल में उत्तराधिकारी हेतु कलह हुआ और अंततः दो पुत्र मारे गये। अन्त में संग्राम सिंह गद्दी पर गये।



महाराणा सांगा (1509-1528)-
           1509 में कर्मचंद पंवार की सहायता से सांगा शासक बना। संग्राम सिंह (सांगा) को इतिहास में सैनिकों का भग्नावशेष, मानवों का खण्डहर व ’हिन्दू पत बादशाह’ कहा जाता है।


◆ सांगा ने मेदिनीराय प्रकरण से क्षुब्ध होकर मालवा पर आक्रमण किया। गागरोण युद्ध में सांगा ने मालवा नरेश महमूद खलजी-द्वितीय को बुरी तरह से हराकर बंदी बना दिया, लेकिन बाद में वापस भी छोड़ दिया।
◆ गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह व सांगा के मध्य ’ईडर के उतराधिकार’ को लेकर कई बार संघर्ष हुआ, लेकिन सुल्तान को हर बार मुंह की खानी पड़ी।
सांगा के जीवनकाल के प्रमुख युद्ध -

◆ खानवा के युद्ध में चंदेरी के मेदिनीराय, मारवाड़ के मालदेव, आमेर के पृथ्वीराज, सादड़ी का झाला अज्जा, गोगुन्दा का झाला सज्जा, सलुम्बर का रावत रतनसिंह, मेड़ता का रायमल राठौड़, सिरोही का अखयराज दूदा, डूंगरपुर का रावल उदयसिंह शामिल हुए।
◆ खानवा के युद्ध में सांगा की हार का प्रमुख कारण बाबर द्वारा ’तोपखाने का प्रयोग’ व बाबर की कुशल युद्धनीति व श्रेष्ठ नेतृत्व रहा। खानवा युद्ध में रायसेन के सलहदी तंवर ने विश्वासघात किया।
◆ खानवा का युद्ध 1527 परिणामों की दृश्टि से अतिमहत्वपूर्ण रहा। इससे  देश की राजसत्ता राजपूतों के हाथ से निकलकर मुगलों के हाथ में चली गई।
◆ सांगा एक वीर योद्धा थे। उन्होंने अपने देश की रक्षा के लिये अपनी एक आंख, एक टांग व एक हाथ गवां दिया था। इसलिये सांगा को सैनिको का भग्नावशेष भी कहा गया।
◆ 30 जन. 1528 को महाराणा सांगा की मृत्यु ईरिच गांव कालपी, गुजरात में हुई व उनका अंतिम संस्कार ’माण्डलगढ’ में किया गया, जहां पर उनकी छतरी बनी हुई है।


★ सांगा के बाद उनका पुत्र विक्रमादित्य (1531-36) मेवाड़ का शासक बना। विक्रमादित्य के समय 1534 में गुजरात के बहादुरशाह ने मेवाड़ पर आक्रमण किया, बाघसिंह के नेतृत्व में राजपूतों ने केसरिया किया व हाडीरानी कर्मावती के नेतृत्व में जौहर हुआ। यह चितौड़ का दूसरा साका कहा जाता है।
दासी पुत्र बनवीर (1536-40) ने विक्रमादित्य की हत्या कर स्वयं मेवाड़ का शासक बना, उसने राजकुमार उदयसिंह को भी मारने की कोशिश की, लेकिन पन्नाधाय के बलिदान ने उसकी जान बचा ली। मेवाड़ के सरदारों के सहयोग से उदयसिंह का कुंभलगढ में लालन पालन किया गया।



महाराणा उदयसिंह (1540-72)-  सांगा के छोटे पुत्र उदयसिंह का राज्याभिषेक 1537 में कुंभलगढ़ में हुआ। ध्यान रहे कि मारवाड़ के मालदेव ने उदयसिंह को मेवाड़ का शासक बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। 1567 में अकबर ने चितौड़ पर आक्रमण किया। राजपूतों ने जयमल - फत्ता के नेतृत्व में केसरिया किया, राजपूती ललनाओं ने जौहर किया। यह चित्तोड़ का तीसरा साका था। उदयसिंह वहां से भाग कर किसी सुरक्षित स्थान पर चला गया। 1559 में उदयसिंह ने उदयपुर नगर बसाया व उसे अपनी राजधानी बनाया। 1572 में बीमारी के कारण उदयसिंह की मृत्यु हो गई व गोगुन्दा में उनकी छतरी भी है।



महाराणा प्रताप (1572-97)-
प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को कटारगढ़ (कुभलगढ़) में हुआ था। महाराणा प्रताप की माता का नाम जयंवता बाई था। प्रताप की पत्नी का नाम अजबदे पंवार था।  महाराणा प्रताप को बचपन में भीलों द्वारा ’कीका’(छोटा बच्चा) नाम से पुकारा जाता था। 
◆ उदयसिंह की मृत्यु के बाद 1572 में गोगुन्दा में महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक हुआ। प्रताप ने मेवाड़ के स्वामीभक्त सरदारों व भीलों की मदद से एक शक्तिशाली सेना का गठन किया व अपनी राजधानी गोगुन्दा से कुंभलगढ़ स्थानांतरित की। 


◆ अकबर द्वारा महाराणा प्रताप को समझाने के लिए भेजे गये चार शिष्टमण्डल-
1. J- जलाल खां- November 1572
2. M-मानसिंह- June 1573
3. B- भगवन्त दास- Septmber 1573
4. T- टोडरमल- December 1573
◆ प्रताप को विपत्तिकाल में उसके मंत्री भामाशाह ने संपति दान की थी। इसी कारण भामाशाह को दानवीर व मेवाड़ का उद्धारक भी कहा जाता है।
हल्दीघाटी युद्ध (18 जून 1576) - हल्दीघाटी में अकबर के सेनापति राजा मानसिंह (आमेर) व आसफ खां महाराणा प्रताप के विरूद्ध मैदान में थे। हालांकि मेवाड़ी सेना ने प्रताप व उसके सेनापति हाकिम खां व भीलराजा  राणा पूंजा के नेतृत्व में मुगल सेना को पूरी टक्कर दी। अन्त में राणा प्रताप की सेना की पराजय हुई लेकिन यदि हम युद्ध के परिणामों में जाते है, तो पार्थिव विजय तो मुगलों की हुई, परन्तु यह विजय भी पराजय के समान थी क्योंकि अकबर अपने मूल उद्देश्य को प्राप्त करने में विफल रहा। वह न तो प्रताप को पकड़ पाया व न ही उससे अपनी अधीनता स्वीकार करा पाया।
कुंभलगढ़ युद्ध (1578-80)- शाहबाज खां, अब्दुल रहीम खानखाना बनाम महाराणा प्रताप।
दिवेर युद्ध (1582) - महाराणा प्रताप बनाम व मुगल सेनापति सुल्तान खां (अकबर का चाचा) के बीच युद्ध। सुल्तान खान मारा गया।इस युद्ध को 'मेवाड़ का मैराथन' कहा जाता है।
◆ 19 जन. 1597 को धनुष की प्रत्यंचा से घायल प्रताप की मृत्यु हो गयी। बाण्डोली में प्रताप की 8 खंभा छतरी है। चेतक की छतरी बलीचा गांव में है।
◆ प्रताप ने मेवाड़ पर 25 वर्षों तक शासन किया, लेकिन इतने कम समय में ही उन्होंने ऐसी कीर्ति अर्जित कर ली, जो देशकाल की सीमा को पार कर अमर हो गयी। अकबर ने प्रताप को अधीनता में लाने के लिये अनेक प्रयास किये, कई प्रतिनिधि मण्डल भेजे, आक्रमण किये लेकिन सब विफल रहे। जब भारत व राजस्थान के अधिकांश राजे-महाराजे अकबर की अधिनता स्वीकार करने में गौरव महसूस कर रहे थे, तब प्रताप ने सारे राजसी वैभव और ठाठ-बाठ से भी ऊपर अपने स्वाभिमान को सर्वोपरि रखते हुये मेवाड़ी आन को बनाये रखा।
◆ कर्नल टाड लिखते है ,"अरावली में कोई भी ऐसी घाटी नहीं बची, जो प्रताप के किसी वीर कार्य, उज्ज्वल विजय या उससे भी अधिक कीर्तियुक्त पराजय से पवित्र न हुई हो। हल्दीघाटी मेवाड़ की थर्मोपल्ली व दिवेर मेवाड़ का मैराथन है।’’

महाराणा अमरसिंह (1597-1620)-


मुगल राजकुमार खुर्रम (शाहजहां) द्वारा मेवाड़ मे बार-बार आक्रमण किये गये, फसलें बर्बाद की गई, आमजन को प्रताड़ित किया गया। मजबूरन राणा अमर सिंह को मुगलों से संधि करनी पड़ी।  अमरसिंह व खुर्रम के बीच 1615 में एक सम्मानजनक मुगल मेवाड़ संधि सम्पन्न हुई। जिसमें महाराणा के मुगल दरबार मे उपस्थित होने व मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने की बाध्यता नहीं रखी गई।  1620 में इनकी मृत्यु हुई। महाराणा का दाह संस्कार आहड में हुआ। आहड़ की महासतियों में अमरसिंह की प्रथम छतरी बनाई गई।

★ अमर सिंह के बाद कर्णसिंह (1620-28) व  जगत सिंह (1628-52) शासक बने।जगतसिंंह ने पंचायतन शैली का भव्य जगदीश मंदिर बनवाया। साथ ही जगनिवास व जगमंदिर का निर्माण पूर्ण करवाया। जगन्नाथराय प्रशस्ति उत्कीर्ण करवाई, जिसका लेखक 'कृष्णभट' था।


महाराणा राजसिंह ’विजयकटकाटु’ (1652-1680)-
राजसिंह ने औरंगजेब के जजिया कर व हिन्दू मूर्तियों, मंदिरों को तोड़ने के कार्य का विरोध किया व औरंगजेब के विरूद्ध किशनगढ़ के राजा रूपसिंह की पुत्री ’चारूमति’ से विवाह भी किया। राजसिंह ने जोधपुर के अजीत सिंह की भी सहायता की। 

राजसिंह ने सिहाड़ में श्रीनाथ जी मंदिर व कांकरौली के द्वारकाधीश मंदिर का निर्माण कराया। उदयपुर में अम्बा माता मंदिर बनाया। जनता को अकाल के समय मदद करने हेतु राजसिंह ने राजसमंद झील व राजप्रशस्ति का भी निर्माण करवाया। राजसमंद झील के पास राजनगर कस्बा भी बसाया। राजसिंह ने मेवाड़ में ’धींगा गणगौर’ त्यौहार भी प्रारंभ करवाया। राजसिंह की मृत्यु होली के दिन हुई।


महाराणा जयसिंह (1680-98) ने उदयपुर के सलुम्बर के पास जयसमंद (ढ़ेबर) झील का निर्माण कराया। जयसिंह ने औरंगजेब से कुछ समय तक संघर्ष के बाद संधि कर ली।

अमरसिंह द्वितीय (1698-1710)- देबारी समझौते(1708) के तहत मेवाड़, मारवाड़ व आमेर को एकता के सुत्र में बांधने के लिये वैवाहिक संबंध स्थापित किये गए। अपनी पुत्री चन्द्र कुंवरी का विवाह सवाई जयसिंह से किया।

महाराणा संग्राम सिंह-द्वितीय (1710-40)- इसने उदयपुर में सहेलियों की बाडी, बैद्यनाथ मंदिर व प्रशस्ति का निर्माण करवाया।

महाराणा जगतसिंह -द्वितीय (1734-61)- हुरडा सम्मेलन की अध्यक्षता।
महाराणा भीमसिंह (1778-1828) - भीमसिंह की पुत्री कृष्णाकुमारी के विवाह को लेकर जोधपुर राजा मानसिंह व जयपुर के जगतसिंह के बीच में गिंगोली का युद्ध (1807) में हुआ। जिसमें जोधपुरी सेना हार गई। 1810 में कृष्णा कुमारी को अमीर खां पिंडारी के दबाव में जहर देकर मार दिया गया। यह घटना मेवाड़ राजघराने पर लगा हुआ एक कलंंक है।


महाराणा स्वरूप सिंह(1842- 1861)-            स्वरूप सिंह ने गद्दी पर बैठते ही जाली सिक्कों के प्रचलन को रोकने के लिए नए 'स्वरूपशाही' सिक्के चलाये। इनके समय मे डाकन प्रथा, सती प्रथा व कन्या वध पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए।इनकी मौत पर इनकी एक पासवान एंजाबाई ही इनके साथ सती हुई। मेवाड़ के इतिहास की यह अंतिम सती होने की घटना थी।इन्ही के समय ही 1857 का विप्लव हुआ, जिसमे महाराणा ने अंग्रेजी हुकूमत का भरसक साथ दिया।


महाराणा शम्भू सिंह(1861-1872)-     इनकी अल्पायु की वजह से मेजर टेलर आयोग को शासन के लिए नियुक्त किया गया।जिसने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ कड़े कदम उठाए।

महाराणा सज्जन सिंह (1874-1884)-     न्याय प्रशासन में सुधार के मध्ये नजर सज्जन सिंह ने पहले इजलास खास व बाद में -'महेन्द्राज सभा' का गठन किया।इन्होंने सज्जन निवास बाग, सज्जन गढ़ पैलेस व सज्जन यंत्रणालय(सज्जन कीर्ति सुधाकर पत्र) की नींव रखी थी। श्यामलदास दधवादिया इनके ही दरबारी कवि थे, जिन्हें राणा सज्जन सिंह ने 'कविराज' की उपाधि दी थी।


महाराणा फतेहसिंह(1884-1930)-  इन्होंने फतहसागर झील का निर्माण करवाया। वाल्टर कृत राजपूत हितकारिणी सभा की स्थापना में राणा फतेहसिंह का मुख्य योगदान रहा।इसके माध्यम से कुरीतियों पर और प्रतिबंध लगाए गए।

1 जनवरी 1903 को जब राणा किंग एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में आयोजित दिल्ली के विशाल दरबार मे जा रहे थे, तब राणा को प्रताप सिंह बारेठ ने 13 सोरठे की कविता -'चेतावनी रा चुंगट्या' लिखकर भेजी, जिसमे उसको अपने अतीत के गौरव व स्वाभिमान को ललकारा गया। इससे प्रभावित होकर राणा फतेहसिंह ने दिल्ली जाने का विचार त्याग कर, बीच रास्ते से ही वापिस आ गए।


महाराणा भूपाल सिंह(1930-1947)-  

इनके समय मे बिजोलिया किसान आंदोलन, बेगू आंदोलन, प्रजामंडल आंदोलन व एकीकरण जैसे कई महत्वपूर्ण कार्य हुए। राणा भूपाल ने एकीकरण के समय सकारात्मक भूमिका निभाई, 18 अप्रेल 1948 को उदयपुर संयुक्त राजस्थान का हिस्सा बन गया। 


बांगड़ के सिसोदिया - इनके राज्यों के संस्थापक निम्न है - 




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