राठौड़ वंश का इतिहास

                 राठौड़ वंश का इतिहास


जोधपुर का राठौड़ वंश-
उत्पति-
दक्षिण की एक जाति ’राष्ट्रकूट’ से राठौड़ शब्द बना है। नैणसी के अनुसार राठौड कन्नौज के जयचंद गहडवाल के वंशज है। दयालदास री ख्यात, जोधपुर री ख्यात व पृथ्वीराज रासो ने भी इसका समर्थन किया है। औझा राठौड़ो को बदायू के राठौड़ो का वंशज मानते है।
राव सीहा-
राठौड़ वंश की स्थापना 13वीं शताब्दी में ’राव सीहा’ ने की। इस वंश की प्रारम्भिक राजधानी मण्डौर थी। सीहा के बार वीरमदे, राव चूण्डा (मंडोर विजय) शासक बने।
राव जोधा-(1453-89)

जोधा ने 1459 में चिडियाटूंक पहाडी पर मेहरानगढ दुर्ग बसाया व जोधपुर नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया। जोधा के पुत्र बीका ने बाद में जाकर बीकानेर की नींव डाली।
★ जोधा  के बाद राव सातल, राव सूजा व राव गांगा शासक बने।


राव मालदेव (1531-62)-
राव गांगा का सबसे बड़ा पुत्र था। इसने गांगा के जीवनकाल में ही सोजत व सेवकी के युद्ध में वीरता का परिचय दिया। मारवाड की सेनाओ ने मालदेव के नेतृत्व में खानवा युद्ध में भाग लिया। राव मालदेव गांगा की मृत्यु(हत्या) के बाद 1531 में शासक बना। मालदेव को इतिहास में ’हशमत वाला शासक’ के नाम से जाना जाता है। मालदेव की पत्नी रानी उमादे, रूठ कर तारागढ चली गयी थी, इसी कारण वह इतिहास में रूठी रानी नाम से प्रसिद्ध है। 1541 में पाहेबा युद्ध में मालदेव ने बीकानेर के राव जैतसी को हराकर बीकानेर पर अपना आधिपत्य कर लिया। 
    ● ’सुमेलगिरी या जैतारण के युद्ध’ (1544)- मालदेव के बढ़ते प्रभाव, मालदेव द्वारा हुमायूं की मदद का प्रयास,वीरमदेव व कल्याणमल द्वारा उकसाये जाने व अपनी महत्वाकांक्षा के चलते शेरशाह ने मालदेव पर आक्रमण किया। सुमेलगिरी के मैदान में शेरशाह की सेना को मालदेव के सेनापति जेता-कूंपा ने जबरदस्त टक्कर दी। शेरशाह की हार लगभग निकट थी, उसी वक्त उसका सेनापति जलाल खां जलवानी संरक्षित सेना लेकर वहां पहुॅंच जाता है जिससे युद्ध का पासा पलट जाता है और हारता हुआ शेरशाह वापस जीत जाता है। शेरशाह इस जीत पर कहता है कि, ’मैने मुटठीभर बाजरे के लिये हिन्दुस्तान की बादशाहत खो दी होती।’ शेरशाह ने जोधपुर, मेड़ता, बीकानेर, अजमेर पर अपना अधिकार कर लिया। मेड़ता वह वीरमदेव व बीकानेर कल्याणमल को सौंप देता है।
    ●शेरशाह के लौटने के बाद मालदेव पुनः सक्रिय हो जाता है, वह जोधपुर, पोकरण, फलौदी, जैसलमेर, अजमेर, सातलमेर व मेड़ता को पुनः जीत लेता है।
मालदेव ने पोकरण व मालकोट के किलों का निर्माण करवाया था। 
    ●हरमाडा युद्ध में मालदेव व हाजी खां की संयुक्त सेना ने मेवाड के महाराणा उदयसिंह के नेतृत्व वाली सेना को हराया।


 ★ राव चन्द्रसेन - (1562-83)


मालदेव की मृत्यु के बाद चंद्रसेन शासक बना,जिससे नाराज होकर मालदेव का ज्येष्ठ पुत्र उदयसिंह अकबर के पास चला गया। अकबर ने हुसैन कुली के नेतृत्व में षाही सेना भेजकर जोधपुर पर अधिकार कर लिया व चंद्रसेन ’भाद्राजूण’ भाग गया। अकबर ने 1572 में बीकानेर के रायसिंह को जोधपुर का प्रशासक लगाया। चंद्रसेन जीवन पर्यन्त मुगलों से संघर्ष करता रहा, इसी कारण उसे ’मारवाड़ का प्रताप’(प्रताप का अग्रगामी)भी कहा जाता है।
    ● नागौर दरबार  (03 नवम्बर 1570)- अकबर ने 1570 में राजस्थान के नागौर मे एक दरबार का आयोजन किया जिसमे बीकानेर के राजा कल्याणमल व जैसलमेर के राजा रावल हरराय ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिये। लेकिन राव चंद्रसेन भी दरबार मे आया था, परंतु अकबर का झुकाव अपने भाई उदयसिंह की और देखकर वह वापिस चला गया।
●अकबर ने चंंद्रसेन के पीछे हुसैन कुली खां को मारवाड़ भेजा। चंद्रसेन भाद्राजूण (जालौर) चला गया। अकबर ने मारवाड़ का प्रशासक बीकानेर के रायसिंह को बनाया ।रायसिंह ने भाद्राजूण पर आक्रमण किया तब चंद्रसेन मेवाड़ के जंगलों मे चला गया।
●चंद्रसेन का अंतिम समय वहीं व्यतीत हुआ और 1581 ई. में मेवाड़ के जंगलों में देहान्त हो गया।



मोटा राजा उदयसिंह (1585-95)-  मोटा राजा उदयसिंह ने अपनी पुत्री मानबाई  का विवाह सलीम (जहांगीर) से कर दिया। मानबाई को ’’जगत गोंसाई’’ के नाम से जाना जाता है। इसी की कोख से शाहजहॉं (खुर्रम) का जन्म हुआ। 

   ★ उदयसिंह के बाद शूरसिंह , गजसिंह व जसवंत सिंह क्रमशः शासक बने। गजसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर मुगल सम्राट जहाँगीर ने इन्हें ‘दलथंभन’ की उपाधि प्रदान की।गजसिंह का ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंह था लेकिन उन्हाेंने अपनी प्रेमिका अनारां के कहने पर अपना उत्तराधिकारी छोटे पुत्र जसवंत सिंह को घोषित किया।

जसवंत सिंह (1638-78)-                                             1638 में गजसिंह के बाद जसवंत सिंह का आगरा में राजतिलक हो गया। औरंगजेब धर्मत युद्ध में जसवंत के दारा की तरफ होने से कुपित था, इसलिये उससे बदला लेना चाहता था। मुहणौत नैणसी जसवंत सिंह का दरबारी था। इन्होंने भाषा भूषण, आनंद विलास व सिद्धान्त बोध नामक पुस्तकों की रचना भी की।इनकी मृत्यु जमरूद(अफगानिस्तान) में 1678 में हो गयी थी।उसने जसवंत सिंह की मृत्यु पर कहा ’आज कुफ्र का दरवाजा टूट गया है।’ औरंगजेब ने जसवन्त सिंह की मृत्यु के बाद उनका जायज वारिस अजीत सिंह के होते हुये भी जोधपुर की भूमि खालसा घोषित कर दी।


अजीत सिंह (1707-24)-
अजीतसिंह ने अपने राज्य प्राप्ति के लिये खूब संघर्ष किया व इस संघर्ष में दुर्गादास ने भी उसका खूब साथ निभाया।दुर्गादास राठौड़ ने मुकुंद दास खींची की सहायता से अजीत सिंह को दिल्ली के किले से निकालकर कालिन्दी (सिरोही) में जयदेव ब्राह्मण के घर रखा तथा मेवाड़ के  राजा राजसिंह से सहायता प्राप्त की। राजसिंह ने अजीत सिंह को केलवा सहित 12 गांव का पट्टा देकर वहां का जागीरदार बनाया। टॉड ने दुर्गादास को 'राठोड़ों का यूलिसिस' कहा है। अंत में औरंगजेब की मृत्यु के बाद 1707 में ही अजीत सिंह गद्दी पर बेठ सका। गद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद अपने कुछ सामंतो के कहने में आकर अजीतसिंह ने दुर्गादास को देश निकाला दे दिया तब दुर्गादास उदयपुर चला गया। वह उदयपुर के महाराजा अमर सिंह द्वितीय की सेवा मे रहा।दुर्गादास का निधन उज्जैन में हुआ और वहीं क्षिप्रा नदी के तट पर उनकी छतरी (स्मारक) बनी हुई है।

अजीतसिंह ने अपनी पुत्री इन्द्रकुंवरी का विवाह फर्रूखसियर से कर दिया, जो मुगलों के साथ होने वाला अंतिम राजपूत विवाह था।अजीत सिंह के 2 पुत्र थे - अभय सिंह व बख्त सिंह। अभय सिंह के कहने पर छोटे भाई बख्त सिंह ने 1724 में पिता अजीत सिंह की हत्या कर दी थी। वह मारवाड़ का दूसरा पितृहन्ता बना।


★ अजीतसिंह के बाद अभय सिंह (1724-49) शासक बना। इनके शासन काल मे इनके आदेश पर गिरधारीदास ने खेजड़ली ग्राम में वृक्ष काटने के आदेश दिए थे, और खेजड़ली जैसा दुर्दांत कांड हुआ, जिसमे अमृता देवी समेत कुल 363 आम जन की हत्या कर दी गयी। खेजड़ली काण्ड (अमृता देवी,1730) अभयसिंह से सुमेलित है। इस कांड की याद में आज भी प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला दशमी को विश्व का एकमात्र वृक्षमेला खेजड़ली(जोधपुर) में भारत है।


मानसिंह (1803-43) को 'सन्यासी राजा' भी कहा जाता है। इसने नाथ सम्प्रदाय के आयस देवनाथ को अपना गुरु बनाया।व नाथों के लिए 'महामंदिर पीठ' का निर्माण भी कराया। मानसिंह ने जोधपुर किले में मानप्रकाश पुस्तकालय बनवाया। इन्ही के समय राजकुमारी कृष्णाकुमारी का प्रकरण भी हुआ। प्रसिद्ध कवि बांकीदास आशियां इनके दरबारी थे जिन्होंने बांकीदास री ख्यात की रचना की थी। मानसिंह ने 1818 में अंग्रेजो से संधि कर ली। 

महाराजा तख्तसिंह (1843-1873) :-                          महाराजा मानसिंह के बाद तख्तसिंह जोधपुर के शासक बने।तख्तसिंह के समय ही 1857 का विद्रोह हुआ जिसमें तख्तसिंह ने अंग्रेजों का साथ दिया।तख्तसिंह ने ओनाड़सिंह तथा राजमल लोढ़ा के नेतृत्व में आउवा सेना भेजी। आउवा के निकट बिथौड़ा नामक स्थान पर 8 सितम्बर, 1857 को युद्ध हुआ जिसमें जोधपुर की सेना की पराजय हुई।तख्तसिंह ने जोधपुर दुर्ग में चामुंडा मंदिर का निर्माण करवाया।


★ महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय (1873-1895)           महाराजा तख्तसिंह के बाद जसवंत सिंह द्वितीय जोधपुर के शासक बने।इन्होंने 1892 ई. में जोधपुर में जसवंत सागर का निर्माण करवाया।जसवंत सिंह द्वितीय पर नन्ही जान नामक महिला का अत्यधिक प्रभाव था। इस समय स्वामी दयानंद सरस्वती जोधपुर आये थे। एक दिन स्वामी जी ने जसवंत सिंह द्वितीय को नन्ही जान की पालकी को अपने कंधे पर उठाये देखा जिससे स्वामीजी नाराज हुए तथा जसवंत सिंह द्वितीय को धिक्कारा।इससे नाराज होकर नन्ही जान ने महाराजा के रसोइये गौड मिश्रा के साथ मिलकर दयानंद सरस्वती को विष दे दिया।इसके बाद स्वामीजी अजमेर आ गए जहाँ 30 अक्टूबर, 1883 को उनकी मृत्यु हो गई।

महाराजा सरदारसिंह (1895-1911)                        1895 ई. में सरदारसिंह जोधपुर के शासक बने।चीन के बाॅक्सर युद्ध में सरदारसिंह ने अपनी सेना चीन भेजी तथा इस कार्य के लिए जोधपुर को अपने झंडे पर ‘चाइना-1900’ लिखने का सम्मान प्रदान किया गया।इन्होंने देवकुंड के तट पर अपने पिता जसवंत सिंह द्वितीय के स्मारक ‘जसवंत थड़ा’ का निर्माण करवाया।इनके शासनकाल में सरदार समंद तथा हेमावास बांध के निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ।सरदारसिंह घुड़दौड़, शिकार तथा पोलो खेलने के शौकीन थे। इनके शौक के कारण उस समय जोधपुर को ‘पोलो का घर’ कहा जाता था।

महाराजा सुमेरसिंह (1911-1918)                             इनकी आयु कम होने के कारण शासन प्रबंध के लिए रीजेंसी काउंसिल की स्थापना की गई तथा प्रतापसिंह को इसका रीजेंट बनाया गया।प्रथम विश्वयुद्ध के समय महाराजा सुमेरसिंह तथा प्रतापसिंह अपनी सेना सहित अंग्रेजों की सहायता के लिए लंदन पहुँचे तथा फ्रांस के मोर्चो पर भी युद्ध करने पहुँचे।

महाराजा उम्मेद सिंह (1918-1947) :-                      महाराजा सुमेरसिंह के देहांत के पश्चात उनके छोटे भाई उम्मेदसिंह जोधपुर के शासक बने।1923 में उम्मेदसिंह के राज्याभिषेक के समय भारत के वायसराय लॉर्ड रीडिंग जोधपुर आये थे।महाराजा उम्मेदसिंह ने ‘उम्मेद भवन पैलेस’ (1929-1942 ई.) का निर्माण करवाया जो ‘छीतर पैलेस’ के नाम से भी जाना जाता है। यह ‘इंडो-कोलोनियल’ कला में निर्मित है।

★ महाराजा हनुवंत सिंह (जून, 1947- मार्च, 1949)-महाराजा उम्मेदसिंह के देहांत के बाद हनुवंत सिंह शासक बने।हनुवंत सिंह जोधपुर राज्य को पाकिस्तान में शामिल करने के इच्छुक थे तथा ये मुहम्मद अली जिन्ना से मिलने पाकिस्तान भी गये।वी.पी. मेनन तथा वल्लभ भाई पटेल के समझाने पर हनुवंत सिंह भारतीय संघ में शामिल होने के लिए तैयार हुए।30 मार्च, 1949 को जोधपुर का संयुक्त राजस्थान में विलय कर दिया गया ।








बीकानेर का राठौड़ वंश:-
राव बीका (1465-1505)


राव जोधा के पाँचवे पुत्र राव बीका ने करणी माँ के वरदान से 1488 में बीकानेर राज्य की स्थापना की व उसे अपनी राजधानी बनाया।
राव लूणकरण (1505-26)-
बीका के बाद उसका पुत्र नरा तत्पश्चात् नरा का भाई लूणकरण शासक बना। इसने 1513 में नागौर के राजा मुहम्मद खां को पराजित किया व मेवाड़ के महाराणा रायमल की पुत्री से विवाह किया। लूणकरण को उसकी दानशीलता के कारण ’कलयुग का कर्ण’ कहा जाता है।
राव जैतसी (1526-42)-
लूणकरण के बाद शासक बने राव जैतसी के समय 1541 में मारवाड़ के मालदेव ने बीकानेर पर आक्रमण किया। ’सुहेब पाहेबा’ युद्ध में राव जैतसी लड़ते हुए मारा गया व बीकानेर पर मालदेव का अधिकार हो गया।
राव कल्याणमल (1544-74)-
कल्याणमल ने पिता की मृत्यु के बाद 1544 में शेरशाह की मदद से बीकानेर राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया। इसने 1570 में नागौर दरबार में अकबर की अधीनता स्वीकार कर उससे वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिये।
    ● पृथ्वीराज राठौड़, जो कल्याणमल का छोटा पुत्र था, ने ’बेलि कृष्ण रूक्मिणी री’ की रचना (गागरोण दुर्ग) की थी।
महाराजा रायसिंह (1574-1612)-
रायसिंह 1574 में शासक बना। मुंशी देवी प्रसाद ने इसे ’’राजपूताने का कर्ण’’ कहा है। अकबर ने 1572 में उसे जोधपुर का प्रशासक भी बनाया। रायसिंह एक अच्छा लेखक व ज्योतिषी था, इसने ’’रायसिंह महोत्सव’’ व ’’बाल बोधिनी’’ ग्रंथ लिखे। इसने जूनागढ़ किला बनवाया व अकबर व जहांगीर को अपनी सेवाये दी।
महाराजा कर्णसिंह (1631-69)-
कर्णसिंह ने विद्वानों के साथ मिलकर ’साहित्य कल्पद्रुम’ की रचना की व इनके आश्रित विद्वान ’गंगानंद मैथली’ ने ’कर्णभूषण’ की रचना की। कर्णसिंह ने ही देशनोक के करणी माता मंदिर का निर्माण करवाया। 
  ● मतीरे की राड (1644)- बीकानेर शासक कर्णसिंह व नागौर के शासक अमरसिंह के मध्य नागौर बीकानेर सीमा पर हुआ युद्ध। कर्णसिंह इसमें विजयी रहे।
अनूप सिंह (1669-98)-
अनूपसिंह प्रकाण्ड विद्वान था, इसने अनूप विवेक, अनूपोदय, कामप्रवोद आदि ग्रन्थ लिखे। पं. भावभाट्ट इनके दरबारी थे, जिन्होंने संगीत अनूपांकुश, अनूप संगीत विलास व अनूप संगीत विलास की रचना की।
सूरत सिंह (1818) ने मराठा लूटपाट से परेशान होकर अंग्रेज सरकार से संधि कर ली।
★ बाद के शासकों में रतन सिंह, सरदार सिंह, डूंगर सिंह व गंगा सिंह हुए।

महाराजा सरदारसिंह (1851-1872)                       इनके समय राजस्थान में 1857 की क्रांति हुई जिसमें सरदारसिंह ने अंग्रेजों की सहायता की तथा अपनी सेना सहित विद्रोह के स्थानों पर पहुँचकर विद्रोहियों का दमन किया।यह राजस्थान के एकमात्र शासक थे जिन्होंने राजस्थान से बाहर (पंजाब) जाकर विद्रोहियों का दमन किया।1854 ई. में सरदारसिंह ने सतीप्रथा तथा जीवित समाधि प्रथा पर रोक लगवायी।


गंगा सिंह (1887-1943)-


इनके समय विक्रम संवत 1956 (1899-1900 ई.) में भीषण अकाल पड़ा जिसे छप्पनिया अकाल भी कहते हैं। इस समय गंगासिंह ने कई अकाल राहत कार्य करवाये तथा गजनेर झील खुदवाई गई।1900 ई. में गंगासिंह अपनी सेना गंगा रिसाला के साथ चीन के बॉक्सर युद्ध में सम्मिलित हुए।गंगासिंह ने प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया तथा युद्ध के बाद सम्पन्न वर्साय की शांति संधि पर हस्ताक्षर किए।1921 में भारतीय राजाओं को साम्राज्य का भागीदार बनाने के लिए नरेन्द्र मंडल की स्थापना की गई जिसमें गंगासिंह को प्रथम चांसलर बनाया गया तथा वे इस पद पर 1921 से 1925 तक रहे।गंगासिंह ने 1927 में गंगनहर का निर्माण करवाया। गंगासिंह को राजपूताने का भागीरथ तथा आधुनिक भारत का भागीरथ कहा जाता है।गंगासिंह को आधुनिक बीकानेर का निर्माता कहा जाता है।गंगासिंह ने अपने पिता की स्मृति में लालगढ़ पैलेस का निर्माण करवाया। यह महल लाल पत्थर से बना है।



★  महाराजा शार्दुल सिंह (1943-1949 ई.)                   महाराजा गंगासिंह के बाद शार्दुलसिंह बीकानेर के शासक बने।ये बीकानेर रियासत के अंतिम शासक थे।इन्होंने 7 अगस्त, 1947 को ‘इस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर किए।इनके समय बीकानेर रियासत का 30 मार्च, 1949 को संयुक्त राजस्थान में विलय कर दिया गया।



 किशनगढ़ का राठौड़ वंश-

स्थापना- राजपूताना में राठौड़ वंश के तीसरे राज्य किशनगढ़ की स्थापना वर्ष 1611 गुंडोलाव झील के सुरम्य तट पर पहाड़ियों के बीच तत्कालीन महाराजा किशन सिंह ने किशनगढ़ फोर्ट के स्थापना के साथ की।किशन सिंह जोधपुर महाराजा उदय सिंह के आठवें पुत्र थे। किशन सिंह के बाद सहसमल, जगमाल, हरिसिंह, रूपसिंह, मानसिंह, राजसिंह, बहादुर सिंह व सामंत सिंह प्रमुख शासक हुए। 

★ सामंत सिंह उर्फ नागरीदास(1748-65) बड़े कृष्णभक्त हुए, उनके काल मे किशनगढ़ कला का एक बड़ा केंद्र बनकर उभरा।कृष्ण गोपी प्रेम को कथानक बनाकर चित्रकला का विकास हुआ। सावंत सिंह का समय किशनगढ़ चित्रशैली का स्वर्णकाल माना जाता हैं। सामंत सिंह ने चित्रकार मोरध्वज  निहालचन्द से बणी  ठणी   का चित्र बनवाया था। सावंत सिंह की प्रेमिका रसिक प्रिया थी जिसके लिए सावंत सिंह नागरीदास के नाम से कविता लिखता था। बणी-ठणी वर्तमान में किशनगढ़ के संग्रहालय में हैं इसकी एक प्रतिलिपि अलबर्ट हाल पेरिस में भी हैं ।

महाराजा सुमेरसिंह-                                      सुमेरसिंह किशनगढ़ के अंतिम शासक थे, जो वर्ष 1939 में किशनगढ़ राज्य के शासक बने।25 मार्च,1948 को द्वितीय चरण में किशनगढ़ का विलय राजस्थान संघ में कर दिया गया।



नागौर का अमरसिंह राठौड़-                                        अमरसिंह गजसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था लेकिन इनकी विद्रोही तथा स्वतंत्र प्रवृत्ति के कारण गजसिंह ने इन्हें राज्य से निकाल दिया।इसके बाद अमरसिंह मुगल बादशाह शाहजहाँ के पास चले गए।शाहजहाँ ने इन्हें नागौर परगने का स्वतंत्र शासक बना दिया।1644 ई. में बीकानेर के सीलवा तथा नागौर के जाखणियां के गाँव में मतीरे की बैल को लेकर मतभेद हुआ। इस मतभेद कारण नागौर के अमरसिंह तथा बीकानेर के कर्णसिंह के मध्य युद्ध हुआ जिसमें अमरसिंह पराजित हुआ। यह लड़ाई ‘मतीरे की राड़’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। बादशाह के एक रिश्तेदार व अधिकारी सलावत खाँ ने अमरसिंह को द्वेषवश अपशब्द बोले थे जिससे नाराज अमरसिंह ने इसकी गर्दन काटकर हत्या कर दी तथा उसके अन्य मनसबदारों से लड़ते हुए अमरसिंह वीरगति को प्राप्त हुए।


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