हशमत वाला शासक :- राव मालदेव


 राव मालदेव (1532 - 1562 ई.):-
राव गांगा के बाद उनका बड़ा पुत्र राव मालदेव सन 1532 में मारवाड़ गद्दी पर विराजमान हुआ था।राव मालदेव का जन्म 5 सितम्बर 1511 ई. में हुवा था।उसके नाना सिरोही के जगमाल देवड़ा थे। राव मालदेव एक सुयोग्य और वीर सेनानायक था।अपने पिता के जीवन काल मे ही मालदेव ने सोजतसेवकी के युद्ध में भी विशेष पराक्रम दिखा कर जीत लिया था। बाद में खानवा के युद्ध में मालदेव ने  गांगा के प्रतिनधि के रूप में भाग लिया था।

राज्यारोहण:-                                                   गांगा के मरने के बाद 1532 ई. में मालदेव  मारवाड़ का शासक बना,तब उसे केवल जोधपुर और सोजत के दो ही परगने मिले थे। लेकिन राव मालदेव एक महत्वकांक्षी शासक था, वह उत्तरी भारत में राजपूतो की धाक वापिस जमाना चाहता था। इसके कारण उसने अपनी निरंतर सैनिक विजयो से और कूटनीति से मारवाड़ के राज्य की सीमा का विस्तार किया और मारवाड़ को उत्तरी भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य बना लिया था। 

मालदेव का साम्राज्य विस्तार -
 मालदेव ने सबसे पहले अपने पडोसी राज्यों को जितने का काम किया उसने सबसे पहले 1533 ई. में फलौदी पर आक्रमण कर वह के भाटियो को पराजित किया।1536 ई. में मालदेव ने पूर्ण रूप से नागौर पर अपना अधिकार कर लिया।1538 ई. में राव मालदेव ने सिवाना पर भी अपना अधिकार कर लिया। ऐसे ही 1539 में भाद्राजून पर भी अधिकार कर लिया।

             मालदेव ने इसके बाद 1540 सिंकंदर खा को परास्त कर जालोर पर भी अधिकार कर लिया। तत्समय मेवाड़ की तत्कालीन स्थिति बहुत बुरी थी,उस समय वह पर बनवीर कब्ज़ा था ये वही बनवीर था जिसने उदयसिंह को मारने का असफल प्रयास किया था। जिसको असफल करने में पन्ना धाय की सम्पूर्ण भूमिका थी। तब बनवीर के शासन में मेवाड़ की कमजोरी का फायदा उठाते हुए मालदेव ने जहाजपुर, बदनोर , बीसलपुर,  मदारिया, नाडौल  पर अपना अधिकार कर के वहा पर अपने सामंतो को जागीरों के रूप में दे दिया।                   1538 ई. में एक शक्तिशाली सेना भेजकर मालदेव ने मेड़ता के वीरमदेव को हराकर उससे मेड़ताअजमेर छीन लिए, व वीरमदेव को हराकर भगा दिया।कुपित वीरमदेव शेरशाह सूरी की शरण मे चला गया।इसके बाद मालदेव ने सांभर , चाकसू , लालसोट आदि क्षत्रो पर भी अपना अधिकार कर लिया।

 साहेबा का युद्ध(1541 ई):-                        बीकानेर में उस समय उसके अपने भाईयों राठोड़ों का राज्य था परन्तु मालदेव अपनी महत्वाकांक्षा में इतना अँधा हो चूका था उसे ये सब दिखाई नहीं दिया और उसने बीकानेर पर भी 1541 ई. में कुम्पा के साथ एक विशाल सेना भेजी। उस समय बीकानेर का शासन राव जैतसी के हाथ में था। राव जैतसी ने अपने परिवार को सिरसा भेज दिया और खुद आगे बढ़ कर साहेबा के मैदान में जोधपुर की सेना से जंग लड़ी।'साहेबा के युद्ध' मे अंततः बीकानेर की हार हुई, राव जैतसी लड़ते हुए मारा गया। इस विजय से खुश होकर मालदेव ने कूम्पा को बीकानेर का प्रबंधन के साथ ही डीडवाना और झुंझुनू की जागीर भी दे दी।

मालदेव और शेरशाह सूरी   :-

 अपने साम्राज्य का चतुर्दिक विस्तार करता हुआ 1542 ई. तक मालदेव उत्तरी भारत का सबसे शक्तिशाली शासक बन गया था। मालदेव के राज्य की सीमाएं उत्तर में बीकानेर और हिसार और पूर्व में बयाना और धौलपुर और दक्षिण में मेवाड़ और पश्चिम में जैसलमेर तक विस्तारित हो गयी थी। इस प्रकार मालदेव राठोड़ो का सबसे शक्तिशाली शासक बन गया था। उसने अपने सभी शत्रुओ को पराजित कर दिया था। मालदेव का उस समय कई दुर्गो पर कब्ज़ा था।  उन दुर्गो में मेड़ता, सिवाना, अजमेर, नागौर, जालौर, भाद्राजूण और बीकानेर जैसे सुदृढ़ दुर्ग थे।

            जिस समय मालदेव अपनी सर्वोच्चता की और अग्रसर था ठीक उसी समय दिल्ली की राजनीति में उथल पुथल मचा हुवा था। बाबर के स्थापित किये राज्य को उसके बेटे हुमायूं ने चौसा और कन्नौज के युद्ध में हार कर पूरी तरह खो दिया था।और इसी के साथ दिल्ली के राज्ये पर शेरशाह सूरी का आधिपत्य हो गया था।परन्तु शेरशाह को अभी भी हुमायूँ से डर था इसलिए उसने एक विश्वसनीय सेना को हुमायूँ के पीछे लगा दिया था।इन सभी मुसीबतो को झेलते हुवे हुमायूँ इधर उधर भटकते हुवे 1541 ई. के प्रारम्भ में भक्कर पहुँचा।

 हुमायूँ  व मालदेव:-

             उसी समय शेरशाह सूरी एक विशाल सेना लेकर बंगाल में हुवे विद्रोह को दबाने गया गया हुवा था। उस समय शेरशाह की सैन्य शक्ति पूरी तरह चारो और बिखरी हुवी थी। तब उस समय मालदेव ने मौके  का तकाजा लगते हुवे हुमायूँ को 20000 घुड़सवारों की सेना देने सन्देश हुमायूँ के पास भिजवाया था। ये बात 1541 ई. की हे जब हुमायूँ भक्कर में डटा हुवा था।
                मालदेव ने अपने पड़ोसियों से जीत कर अपने राज्ये को विस्तृत किया था। जिसके कारण वीरमदेव, कल्याणमल जैसे उसके पडोसी शत्रु शेरशाह के खेमे में शामिल हो गए थे। तब मालदेव को लगा की क्यों न मुझे भी शेरशाह के दुश्मन हुमायूँ को सैनिक सहायता देकर आने वाले खतरे को टाल लेना चाइये। इस समय मालदेव एक तीर से दो शिकार करना चाहता था। एक तो हुमायूँ के द्वारा शेरशाह को हरा कर उसे ख़तम कर दिया जाये उसके बाद हुमायूँ को सैनिक सहायता देने के बाद उसे अपने अधीन कर लिया जाये। और वैसे भी मालदेव को अपनी सर्वोचता सिद्ध करने के लिए दोनों को हराना तो पड़ता ही क्यों न पहले हुमायूँ और शेरशाह को लड़वा कर उनकी शक्ति को ही कम कर दिया जाये। जिसके कारण उसका काम और आसान हो जाये।                                                                            परन्तु ऐसा हो न सका क्योंकि हुमायूँ उस समय की कीमत को  नहीं पहचान सका और सन्देश का कोई जबाब भी नहीं दिया। बल्कि हुमायूँ उस समय व्यर्थ के कामो में उलझा रहा।।                                                       हुमायूं को उस समय मालदेव से सहायता ले लेनी चाहिए थी। परन्तु वह अब भी सोच रहा था की थट्टा के शासक शाह हुसैन की मदद से गुजरात को जीत लेगा और फिर वह से शक्तिशाली होकर शेरशाह जैसे शक्तिशाली शासक को पराजित कर देगा। हुमायूँ का पहले भी गुजरात के शासक बहादुर शाह के साथ लंबा संघर्ष चला था वह भी वह सफल नहीं हो सका था। तो इस प्रकार हुमायूँ व्यर्थ ही समय ख़राब करता रहा।अंत में जब कहीं भी हुमायूं की दाल नहीं गली, तब उसे मालदेव की याद आई और उसने मालदेव से सहायता लेने की सोच।                                                                                  मालदेव से सहायता लेने के लिए हुमायूँ भक्कर से मारवाड़ की तरफ जाने की सोची और फलौदी परगने में पंहुचा। वह से अतल खा को अपना दूत बना कर मालदेव के पास भेजा। मालदेव ने हुमायूँ को ठहरने की व्यवस्था तो कर दी परन्तु सैनिक सहायता देने का कोई आश्वासन नही दिया।                                         इस कारण हुमायूँ ने वहां से चला जाना ही उचित समझा और हुमायूँ वहा से अगस्त 1542 ई. अमरकोट पंहुचा वहा के राणा ने हुमायूँ का आदर सहित आश्रय प्रदान किया और वही रहते अकबर का जन्म हुवा था।

कूंपा और जैता की वीरगाथा:- 

शेरशाह ने चौसा और कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ को हरा कर दिल्ली के राज्य पर अपना कब्ज़ा कर लिया था। तब से ही शेरशाह का मालदेव के साथ संघर्ष अवश्यम्भावी हो गया था। इसके अलावा जब मालदेव ने बीकानेर और मेड़ता से युद्ध लड़ कर कल्याणमल(राव जैतसी का पुत्र) और वीरमदेव को अपना शत्रु बना लिया तब वे भी शेरशाह के पास पहुंच गए थे। मालदेव व शेरशाह दोनों को उत्तरी भारत का सर्वोच्च शासक बनना था इस कारण दोनों में युद्ध तो होना ही था क्यों की एक म्यान में तो तलवार नहीं ठहर सकती।

        इस प्रकार युद्ध तो सामने दिख ही रहा था परन्तु पहले शेरशाह भी हमला नहीं करना चाहता था। और मालदेव भी सतर्क था की शेरशाह किस मार्ग से हमला करेगा और इस कारण उसने अपने बीकानेर और अजमेर और मेड़ता के किलो को मजबूत कर लिया।

       शेरशाह ने आगरा से 80000  सैनिक और अपना तोपखाना लेकर दिल्ली होते हुवे और नारनौल के रास्ते शेखावाटी में प्रवेश किया यहाँ से रेतीले मार्ग होते हुवे डीडवाना पंहुचा और वह कूंपा की सेना को हरा कर खदेड़ दिया तब कूंपा ने मालदेव को सूचित किया तो मालदेव गिरी नामक स्थान पर पंहुचा और शेरशाह बाबरा नामक स्थान पर पंहुचा दोनों के बीच लगभग 10 मील की दुरी थी।

 गिरी सुमेल युद्ध(5 जन.1544) - 

शेरशाह ने राजपूतो के पहले वीरता के कई क़िस्से सुन रखे थे इसलिए वह अंदर से घबराया हुवा था। लगभग दोनों सेनाये एक माह तक आमने सामने रही इस बीच दोनों ने रेत के बोरो से और खाई खोद कर अपनी अपनी स्थिति को मजबूत बनाने का काम किया। दोनों में से पहले कोई हमला नहीं करना चाहता था।

           शेरशाह ने इससे पहले कई युद्ध चालाकी से जीते थे। उसको मालदेव ने एक माह का समय नहीं देना चाहिए था। शेरशाह ने इस एक माह में पहले तो अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया उसके बाद उसने कूटनीति का सहारा लेते हुवे चालाकी से मेड़ता के वीरमदेव से मालदेव के सरदार कूंपा और जैता के शिविर में 20-20 हजार रूपये रखवा दिए। वीरमदेव ने दोनों सरदारों को अपने लिए कुछ कम्बल और सिरोही की तलवारे खरीदने का आग्रह किया और दूसरी तरफ शेरशाह ने मालदेव के पास अपना गुप्तचर भेजा जो की ऐसा लगे की वो मालदेव को शेरशाह की रणनीति के बारे में बता रहा हो उस गुप्तचर ने मालदेव को बताया की शेरशाह ने उसके दोनों सरदारों जैता और कूंपा को पैसे देकर युद्ध में उसकी और से लड़ने का वादा लिया है। और उधर शेरशाह ने कुछ जाली शाही पत्र भी तैयार करवाकर लिखवाया गया की आप चिंता न करे हम मालदेव को युद्ध के समय पकड़ कर आपके सम्मुख लेकर आ जायेगे। इस प्रकार शेरशाह ने चालाकी से काम लिया और मालदेव के मन में संकोच पैदा कर दिया मालदेव ने तब अपने ही सरदारों जैता और कूपा पर शक होने लगा।

 मालदेव ने अपना मानसिक सन्तुलन खो दिया और वह रात के अँधेरे में अपनी मुख्य सेना लेकर वहा से पलायन कर गया। उसके बाद में वहा पर अपनी 12 हजार सेना के साथ जैता और कूंपा रह गए। जैता और कूंपा राजपूत वीर थे उन्होने सोचा की जो विश्वासघात का आरोप उन पर लगा है उसे केवल शेरशाह से युद्ध करके ही गलत सिद्ध किया जा सकता है। जैता और कूंपा ने शेरशाह की सेना पर जोरदार प्रहार किया शेरशाह की सेना जो की 80 हजार थी,12 हजार राजपूत के सामने पहले हमले में टिक नहीं सकी और 7 मील पीछे हठ गयी, इस हमले से शेरशाह घबरा कर बीच युद्ध मैदान में ही नमाज अदा करने लगा शेरशाह को लगने लगा की अब वह ये युद्ध नहीं जीत सकता लेकिन शेरशाह की किस्मत अच्छी थी, उसी समय उसका सेनानायक जलालखां जलवानी अपनी सेना लेकर युद्ध मैदान में आ गया और युद्ध का माहौल ही बदल गया राजपूत 80 हजार सेना से लड़ते हुवे थक गए थे और शेरशाह के पास एक नई सेना थी जिसकी मदद से शेरशाह ने राजपूती सेना को हरा दिया।जैता और कूंपा  वीरगति को प्राप्त हुवे।


           गिरी सुमेल का युद्ध 5 जनवरी 1544 ई. में लड़ा गया था। इस युद्ध को अगर मालदेव अपनी पूरी सेना के साथ लड़ता तो आज का इतिहास ही कुछ और होता परन्तु मालदेव ने अपने सरदारों पर विश्वास नहीं करके बहुत बड़ी भूल की थी जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। युद्ध के बाद शेरशाह ने कहां था कि ‘‘ख़ुदा का शुक्र है कि किसी तरह फ़तह हासिल हो गई, वरना मैंने एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिंदुस्थान की बादशाहत ही खो ही दी थी।’’

मारवाड़ में इस प्रसंग में एक कहावत आज भी प्रचलित है:- "बोल्यो सूरी बैन सुं, गिरी घाट घमसान।
मुट्ठी खातर बाजरी, खो देतो हिन्दवाण ।।"


सुमेलगिरी के बाद :- 

            इसके बाद शेरशाह ने अजमेर पर कब्ज़ा कर लिया और बाद में मेड़ता और बीकानेर को जीत कर के वीरमदेव को मेड़ता और कल्याणमल को बीकानेर दे दिया और दोनों राज्यों को अपने अधीन ही रखा और उसके बाद शेरशाह ने नागौर को भी अपने कब्जे में ले लिया और वहा से जोधपुर पर धावा बोल दिया और थोड़े से संघर्ष के बाद जोधपुर को भी जीत लिया गया। शेरशाह ने जोधपुर की बागडोर अपने विश्वासी खवाजाखा और ईशाखा को सोप दी और खुद दिल्ली चला गया। और उधर मालदेव ने स्थिति प्रतिकूल देखते हुवे वहा से सिवाना के पर्वतीय भाग में चला गया। 


शेरशाह के लौटने के बाद:-

शेरशाह के लौटने के बाद मालदेव पुनः सक्रिय हो जाता है, वह जोधपुर, पोकरण, फलौदी, जैसलमेर, अजमेर, सातलमेर को पुनः जीत लेता है। हरमाडा युद्ध(1557 ई) में मालदेव व हाजी खां की संयुक्त सेना ने मेवाड के महाराणा उदयसिंह के नेतृत्व वाली सेना को हराकर मेड़ता को भी वापिस हासिल कर लेता है।

7 नवंबर 1562 में मालदेव का देहांत हो जाता है।





         

                         

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