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इतिहास जानने के स्त्रोत:- पुरालेखीय स्त्रोत

पुरालेखीय स्त्रोत - इनमें विभिन्न प्रकार के लिखित रिकार्ड्स यथा- फरमान, परवाने, रुक्के, सनद, अखबारात, अर्जदास्त, वकील रिपोर्ट्स व विभिन्न प्रकार की बहियाँ आदि आते थे, जो तत्कालीन शासन प्रशासन के दैनिक क्रियाकलापों में प्रयुक्त होते थे।इनसे भी तत्कालीन समय के इतिहास को जानने में मदद मिलती है।इन पुरालेखीय रिकॉर्डों को वर्तमान में कई अभिलेखागारों व संग्रहालयों में संजोकर रखा गया है, जिनमें 'राजस्थान राज्य अभिलेखागार' बीकानेर सबसे महत्वपूर्ण है।इसकी स्थापना 1955 में जयपुर में हुई थी जिसे 1960 में बीकानेर स्थानांतरित कर दिया गया। विभिन्न प्रकार के पुरालेख:- ★ फरमान - मुगल बादशाह द्वारा जारी किये गये शाही आदेश। ★ निशान - बादशाह के अलावा शहजादे या बेगमों के द्वारा जारी पत्र निशान कहलाते थे। ★ परवाना - महाराजा द्वारा अपने अधीनस्थ अधिकारियों - कर्मचारियों को जारी आदेश। ★ खरीता - एक राजा का दूसरे राजा के साथ किया जाने वाला पत्र व्यवहार खरीता कहलाता था। ★ सनद - यह एक प्रकार की स्वीकृति होती थी जिसके द्वारा मुगल सम्राट अपने अधीनस्थ राजा को जागीर प्रदान करता था। ★ मंसूर - ...

राजस्थान में चित्रकला

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राजस्थान की चित्रकला शैलियां- पृष्ठभूमि- ● राजस्थान चित्रकला का सर्वप्रथम वैज्ञानिक वर्गीकरण 'डॉ. आनन्द कुमार स्वामी' ने 1916 में किया। जिसके आधार पर उन्होंने राजस्थान चित्रकला को राजपूत शैली नाम दिया। ● एन.सी.मेहता ने राजस्थानी चित्रशैली को 'हिन्दू चित्रकला शैली' नाम दिया। ● ’रामकृष्ण दास’ ने सर्वप्रथम इस शैली को ’राजस्थान चित्रशैली’ नाम दिया। ● कोटा जिले के अलनिया व दर्रा, आहड (उदयपुर), बैराठ (जयपुर) व दर (भरतपुर) के शैलाश्रयों में आदिम मानव के द्वारा उकेरे गये रेखांकन व चित्र प्रारंभिक चित्रण के उदाहरण मिलते है। इन्हें ’’ अकारद चित्र’’ कहा जाता है। ★ चित्रकला का उद्भव व विकास- ● राजस्थान में सर्वप्रथम चित्रण की शुरूआत ’ मेदपाट’(मेवाड़) में 15वीं सदी मे अपभ्रंश शैली में हुई। या गुर्जर प्रतिहार। ● राजस्थान में ताड़ पत्र पर चित्रित प्रथम ग्रंथ ’’ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्रचूर्णि ’’ है, जिले कमलचंद्र के द्वारा रचा गया जो 1260 में गुहिल वंशीय शासक तेजसिंह के समय रचा गया। ● राजस्थानी चित्रकला का उद्भव ’’अपभ्रंश शैली’’ से माना गया है। ● राजस्थानी चित्रकला का स्वर्ण...

राजस्थान में भाषा व बोलियां

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             ◆◆राजस्थान में भाषा व बोलियां◆◆ ● राजस्थान की मातृभाषा राजस्थानी हैं तथा राजस्थान की राजभाषा हिन्दी हैं।राजस्थानी मूलतः हिंदी की उपभाषा है। ●  राजस्थानी भाषा दिवस 21 फरवरी को बनाया जाता हैं।राजस्थान की मूल भाषा राजस्थानी हैं। राजस्थानी भाषा की लिपि- देवनागरी है। ● राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति यद्यपि " शौरसेनी अपभ्रंश " से मानी जाती है, लेकिन डाॅ. ग्रियर्सन ने इसकी उत्पति नागर अपभ्रंश से मानी हैं। ● राजस्थान में सर्वाधिक भाषा मारवाड़ी बोली जाती हैं। अबूल-फजल ने अपनी पुस्तक आईने-अकबरी में मारवाड़ी भाषा को भारत की मानक बोलियों में शामिल किया था।  ● राजस्थानी साहित्य का स्वर्णकाल 1700-1900 ई . तक माना जाता हैं। ● राजस्थानी भाषा का प्राचीनतम ग्रन्थ ‘वज्रसेन सुरी’ द्वारा रचित ‘ भरतेश्वर बाहुबलि घोर ’ है, तथा उधोतन सूरी की ‘कुवलयमाला’ ग्रंथ में भारत की 18 देशी भाषाओं में मारवाड़ी भाषा को ’मरूवाणी’ के नाम से पुकारा गया। ● ' डिंगल ' मारवाड़ी का साहित्यिक रूप डिंगल कहलाता हैं, डिंगल चारणों द्वारा प्रयुक्त होती हैं तथा ...

इतिहास जानने के स्त्रोत:- साहित्यिक स्त्रोत

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                       ◆◆इतिहास जानने के स्त्रोत◆◆ साहित्यिक स्त्रोत:-       राजस्थान के इतिहास की जानकारी के संदर्भ में उपलब्ध साहित्यिक स्त्रोतों को निम्न भागों में बांटा जा सकता है-      क. संस्कृत साहित्य :- ★ हम्मीर महाकाव्य - नयनचंद सूरि। ★ अजितोदय  - जगजीवन भट्ट (जोधपुर नरेश अजीतसिंह के दरबारी)। ★ अमरकाव्य वंशावली - रणछोड़ भट्ट (बप्पा रावल से राजसिंह तक)। ★ राजविनोद - सदाशिव (बीकानेर नरेश कल्याणमल के आश्रित)। ★ एकलिंग महात्म्य - कुंभा व कान्हा व्यास । ★ राजवल्लभ - मण्डन मिश्र। ★ नृत्य राजकोष - कुम्भा। ★ पृथ्वीराज विजय - जयानक। ★ अमरसार - पं.जीवाधार । ख. राजस्थानी साहित्य :- ★ मुण्डीयार री ख्यात (मारवाड़ के राठौड़ों की ख्यात)          -मुंडियार ग्राम के चारण (मुण्डीयार - नागौर)। ★ नैणसी री ख्यात - मुहणोत नैणसी(जसवंत सिंह के दरबारी )। ★ मारवाड़ रा परगना री विगत - मुहणोत नैणसी। ★ बांकीदास री ख्यात - बांकीदास (जोधपुर दरबार मे कवि)। ★ आयो इंगरेज मुलक रै उपर ...

भाटी व यादव राजवंश का इतिहास

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भाटी वंश :- 1155 में भाटी रावल जैसल सिंह ने जैसलमेर के सोनारगढ का निर्माण करवा कर जैसलमेर को अपनी राजधानी बनाया। 1570 के नागौर दरबार में जैसलमेर के हरराय भाटी ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर मुगलों से वैवाहिक संबंध स्थापित किये। 1818 में यहां के शासक मूलराज द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि की। यादव वंश - करौली (प्राचीन नाम गोपालपाल) में यादव वंश के साम्राज्य की स्थापना विजयपाल यादव ने 1040 में की। इसका उल्लेख नल्ल सिंह कृत ’विजयपाल रासौ’ से मिलता है। विजयपाल के वंशज तिमनपाल ने तिमनगढ का निर्माण करवाया। अर्जुनपाल ने करौली नगर बसाया, जबकि धर्मपाल ने उसे अपनी राजधानी बनाया। 15 नवम्बर 1817 में करौली के हरवक्षपाल सिंह ने सर्वप्रथम अंगेज सरकार से संधि की।

जाट राजवंश का इतिहास

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            ।।भरतपुर का जाट राजवंश।। राजस्थान के पूर्वी भाग यथा - भरतपुर, धौलपुर, डीग आदि पर जाट वंश का शासन था। यहाँ जाट शक्ति का उत्थान ओरंगजेब के शासन काल में हुआ।                सिनसिनवार गौत्र के जाट गोकुल ने इस राजवंश की स्थापना की।  इसके प्रमुख शासक निम्न थे , यथा - गोकुल-राजाराम (अकबर के मकबरे को लूटा) - चूडामन (भरतपुर के जाट राज्य की स्थापना) - बदन सिंह (ब्रजराज की उपाधि व डीग के महलों का निर्माण) - सूरजमल (जाट जाति का प्लेटो)  - जवाहर सिंह - रतनसिंह - रणजीत सिंह (1803 में अंग्रेजों को धूल चटाई।) इनका विस्तृत विवरण इस प्रकार हैं- ★ गोकुल जाट:- ओरंगजेब के विरोद्ध पहला संगठित विद्रोह दिल्ली और आगरा क्षेत्र में बसे जाटो ने किया। इनका नेता था - गोकुल जाट।         1670 ई ,में गोकुल जाट ने विद्रोह का नेतृत्व किया। परन्तु उसे बंदी बना कर मार डाला।  इसके पश्चात राजाराम जाट ने विद्रोह का नेतृत्व किया। राजा राम ने सिकंदरा ( आगरा ) ...

परमार वंश का इतिहास

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              ।।परमार वंश का इतिहास।।  परमार का शाब्दिक अर्थ 'शत्रु को मारने वाला' होता है। प्रारम्भ में परमारों का शासन आबू के आस-पास के क्षेत्रों तक ही सीमित था। प्रतिहारों की शक्ति के ह्रास के उपरान्त परमारों की राजनीतिक शक्ति में वृद्धि हुई।प्रतिहारों की कई शाखाएं थी- आबू के परमार :-        आबू के परमार वंश का संस्थापक ‘ धूमराज ’ था, लेकिन इनकी वंशावली उत्पलराज से प्रारम्भ होती है। पड़ौसी होने के कारण आबू के परमारों का गुजरात के शासकों से सतत् संघर्ष चलता रहा। गुजरात के शासक मूलराज सोलंकी से पराजित होने के कारण आबू के शासक धरणीवराह को राष्ट्रकूट धवल का शरणागत होना पड़ा। लेकिन कुछ समय बाद धरणीवराह ने आबू पर पुनः अधिकार कर लिया। उसके बाद महिपाल का 1002 ई. में आबू पर अधिकार प्रमाणित होता है। इस समय तक परमारों ने गुजरात के सोलंकियों की अधीनता स्वीकार कर ली। महिपाल के पुत्र धंधुक ने सोलंकियों की अधीनता से मुक्त होने का प्रयास किया। फलतः आबू पर सोलंकी शासक भीमदेव ने आक्रमण किया। धंधुक आबू छोड़कर धारा के शासक भोज के पास चला गया।...

गुर्जर प्रतिहार वंश का इतिहास

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                 ।। गुर्जर प्रतिहार वंश ।। राजस्थान में प्रतिहारों का आगमन 6ठीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ। प्रतिहारों का शासन गुर्जरत्रा क्षेत्र पर होने के कारण ये गुर्जर प्रतिहार कहलाये। नैणसी ने इनकी 26 शाखाओं का वर्णन किया है। इनमे से मण्डोर, जालौर, उज्जैन व कन्नौज के प्रतिहार प्रसिद्ध हुए। मण्डोर के प्रतिहार - ◆ हरिश्चंद्र ब्राह्मण- प्रतिहारों की मण्डोर शाखा के प्रवर्तक व आदि पुरूष हरिश्चंद्र ब्राह्मण (रोहिलाद्रि) थे। इनकी दूसरी पत्नी भद्रा के पुत्र भोगभट्ट, कदक, रज्जिल, दह के नाम से विख्यात हुए। इन्होंने माण्डव्यपुर (मंडौर) को जीता व उसके चारों ओर दुर्ग बनाया। इसके तीसरे पुत्र रज्जिल से प्रतिहार वंश की वंशावली प्रारंभ होती है।  ◆ नागभट्ट-प्रथम(730-756)- इसी शाखा के नागभट्ट-प्रथम (रज्जिल का पोता) प्रतापी शासक हुआ। नागभट्ट ने राजधानी भी मण्डौर से ' मेडता' स्थानांतरित की। नागभट्ट प्रथम को प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसके दरबार को नागावलोक दरबार कहते थे। बाद में इसने अवन्ति में राजधानी स्थापित की...

राजस्थान में दुर्ग स्थापत्य

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राजस्थान में दुर्ग स्थापत्य :- राजस्थान के शासकों, सामंतो व जागीरदारों ने दुर्गाे का निर्माण समय समय पर करवाया।दुर्गाे का निर्माण निवास, सुरक्षा, सामग्री संग्रहण के लिए और आक्रमण के समय जनता, पशु तथा सम्पत्ति के संरक्षण हेतु किया जाता था। अधिकांश दुर्गों का निर्माण सामरिक महत्व के स्थानों पर किया गया ताकि आक्रमणकारियों से प्रदेश की सुरक्षा हो, तथा व्यापारिक मार्ग सुरक्षित रह सकें। दुर्ग निर्माण उँची एवं चैड़ी पहाड़ियों पर किया जाता था, जहाँ कृषि एवं सिंचाई के साधन उपलब्ध रहते थे।दुर्गों की प्रमुख विशेषताएँ थी -सुदृढ़ प्राचीरे,विशाल परकोटा,अभेद्य बुर्जे, दुर्ग के चारों ओर गहरी नहर या खाई, दुर्ग के भीतर शास्त्रागार की व्यवस्था, जलाशय, मन्दिर निर्माण, पानी की टंकी की व्यवस्था,अन्नभण्डार की स्थापना, गुप्तप्रवेश द्वार रखा जाना, सुरंग निर्माण, राजप्रासाद एवं सैनिक विश्राम गृहों की व्यवस्था आदि। दुर्गो के प्रकार :-शुक्रनीति में 9 प्रकार के दुर्ग बतलाये गए हैं,यथा:-                                    ...

राठौड़ वंश का इतिहास

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                  राठौड़ वंश का इतिहास जोधपुर का राठौड़ वंश- ★ उत्पति - दक्षिण की एक जाति ’राष्ट्रकूट’ से राठौड़ शब्द बना है। नैणसी के अनुसार राठौड कन्नौज के जयचंद गहडवाल के वंशज है। दयालदास री ख्यात, जोधपुर री ख्यात व पृथ्वीराज रासो ने भी इसका समर्थन किया है। औझा राठौड़ो को बदायू के राठौड़ो का वंशज मानते है। ★ राव सीहा - राठौड़ वंश की स्थापना 13वीं शताब्दी में ’राव सीहा’ ने की। इस वंश की प्रारम्भिक राजधानी मण्डौर थी। सीहा के बार वीरमदे, राव चूण्डा (मंडोर विजय) शासक बने। ★ राव जोधा -( 1453-89 ) जोधा ने 1459 में चिडियाटूंक पहाडी पर मेहरानगढ दुर्ग बसाया व जोधपुर नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया। जोधा के पुत्र बीका ने बाद में जाकर बीकानेर की नींव डाली। ★ जोधा  के बाद राव सातल, राव सूजा व राव गांगा शासक बने। ★ राव मालदेव  ( 1531-62 )- राव गांगा का सबसे बड़ा पुत्र था। इसने गांगा के जीवनकाल में ही सोजत व सेवकी के युद्ध में वीरता का परिचय दिया। मारवाड की सेनाओ ने मालदेव के नेतृत्व में खानवा युद्ध में भाग ...